
-टिल्लन रिछारिया
बुंदेलखंड की धरती राम कथा की आदि अनादि जननी है। यहाँ के लोक जीवन के महानायक मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ही हैं। ‘रामायण’ के रचनाकार आदि कवि वाल्मीकि और ‘रामचरित मानस’ के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास का प्रतिष्ठित स्थान यही बुंदेलखंड है। यहां के रोम रोम में राम । यहाँ के साहित्य,संस्कृति,कला,गीत,गायन और जीवन आचरण में राम नाम की गहरी व्याप्ति है। तुलसीदास की रामचरितमानस की रचना से पूर्व ग्वालियर के कवि विष्णुदास ने सन 1442 में बाल्मीकि रामायण के आधार पर बुंदेली मिश्रित ब्रज भाषा में ‘रामायण कथा’ नामक ग्रंथ की रचना कर ली थी।
विष्णुदास के बाद बुंदेलखंड के एकमात्र कवि गोस्वामी तुलसीदास हैं जिन्होंने संवत् 1631 सन 1574 में ‘रामचरित मानस’ लिख कर लोक यश अर्जित किया। यह भी एक संयोग ही है कि जिस दिन तुलसी दास अयोध्या में रामचरित मानस के लेखन का श्रीगणेश किया उसी दिन 4 अप्रैल सन 1574 चैत्र रामनवमी मंगलवार संवत् 1631 को ओरछा की महारानी गणेश देवी कुंवर दे अपने महल में अयोध्या से लाइ हुई रामलला की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कराई और पूरा ओरछा राज्य उनके चरणों में समर्पित कर दिया और उसी दिन से रामलला ओरछा के राजा राम बन गए।
चित्रकूट के वनवासी राम और ओरछा के राजा राम की गमक समूचे बुंदेलखंड में ऐसी फैली कि चतुर्दिक रामकथा और राम काव्य की रचनाओं की बाढ़ आ गई। कितनी पांडुलिपियां मिल चुकीं हैं और कितनी न जाने कहाँ कहाँ विश्राम कर रही हैं। …बुंदेलखंड रामलीलाओं के मंचन का भी पुरातन केंद्र रहा है। सिर्फ लेखन ही नहीं , शिल्प,भित्तिचित्र, गायन , वादन और तमाम लोककलाओं में राम अपने पूरे सांस्कृतिक वैभव के साथ दीप्तमान हैं। अगर बुन्देलखंड के रामकथा और रामकाव्य के रचयिताओं का उल्लेख मात्र ही किया जाए तो कई ग्रन्थ सहज ही रच जाएंगे। सिर्फ एक बानगी प्रस्तुत करते है , राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त के ‘साकेत’ से –
निज सौध सदन में उटज पिता ने छाया,मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
सम्राट स्वयं प्राणेश, सचिव देवर हैं,
देते आकर आशीष हमें मुनिवर हैं।
धन तुच्छ यहाँ,-यद्यपि असंख्य आकर हैं,
पानी पीते मृग-सिंह एक तट पर हैं।
सीता रानी को यहाँ लाभ ही लाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
क्या सुन्दर लता-वितान तना है मेरा,
पुंजाकृति गुंजित कुंज घना है मेरा।
जल निर्मल, पवन पराग-सना है मेरा,
गढ़ चित्रकूट दृढ़-दिव्य बना है मेरा।
प्रहरी निर्झर, परिखा प्रवाह की काया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
औरों के हाथों यहाँ नहीं पलती हूँ,
अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ।
श्रमवारिविन्दुफल, स्वास्थ्यशुक्ति फलती हूँ,
अपने अंचल से व्यजन आप झलती हूँ॥
तनु-लता-सफलता-स्वादु आज ही आया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया॥
जिनसे ये प्रणयी प्राण त्राण पाते हैं
जी भर कर उनको देख जुड़ा जाते हैं।
जब देव कि देवर विचर-विचर आते हैं,
तब नित्य नये दो-एक द्रव्य लाते हैं॥
उनका वर्णन ही बना विनोद सवाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया॥
किसलय-कर स्वागत-हेतु हिला करते हैं,
मृदु मनोभाव-सम सुमन खिला करते हैं।
डाली में नव फल नित्य मिला करते हैं,
तृण तृण पर मुक्ता-भार झिला करते हैं।
निधि खोले दिखला रही प्रकृति निज माया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
कहता है कौन कि भाग्य ठगा है मेरा?
वह सुना हुआ भय दूर भगा है मेरा।
कुछ करने में अब हाथ लगा है मेरा,
वन में ही तो ग्रार्हस्थ्य जगा है मेरा,
वह बधू जानकी बनी आज यह जाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
फल-फूलों से हैं लदी डालियाँ मेरी,
वे हरी पत्तलें, भरी थालियाँ मेरी।
मुनि बालाएँ हैं यहाँ आलियाँ मेरी,
तटिनी की लहरें और तालियाँ मेरी।
क्रीड़ा-साम्राज्ञी बनी स्वयं निज छाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
मैं पली पक्षिणी विपिन-कुंज-पिंजर की,
आती है कोटर-सदृश मुझे सुध घर की।
मृदु-तीक्ष्ण वेदना एक एक अन्तर की,
बन जाती है कल-गीति समय के स्वर की।
कब उसे छेड़ यह कंठ यहाँ न अघाया?
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
गुरुजन-परिजन सब धन्य ध्येय हैं मेरे,
ओषधियों के गुण-विगुण ज्ञेय हैं मेरे।
वन-देव-देवियाँ आतिथेय हैं मेरे,
प्रिय-संग यहाँ सब प्रेय-श्रेय हैं मेरे।
मेरे पीछे ध्रुव-धर्म स्वयं ही धाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
नाचो मयूर, नाचो कपोत के जोड़े,
नाचो कुरंग, तुम लो उड़ान के तोड़े।
गाओ दिवि, चातक, चटक, भृंग भय छोड़े,
वैदेही के वनवास-वर्ष हैं थोड़े।
तितली, तूने यह कहाँ चित्रपट पाया?
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।बुंदेलखंड के रचनाकारों की राम के चरित्र चित्रण की बानगी
रामायण– महर्षि वाल्मीकि
उत्तर राम चरित नाटक– भवभूति
रामायन कथा– विष्णुदास, बुंदेली भाषा
कवि कन्हरदास की स्फुट रचनाएँ
रामचरित मानस– गोस्वामी तुलसीदास
राम चंद्रिका– कवि केसव दास
रामचंद्र नख सिख वर्णन –कवयित्री प्रेमसखी
बुंदेलखंडी तुलसी दास –पदावली रामायण बुंदेली भाषा
श्री रामचंद्र माधुर्य लीलामृत सार– वृषभान कुंवर
रामाश्वमेध– कवि मोहनदास मिश्र
श्री रामचरित नाटक– मुंशी अजमेरी, रामलीला शैली में ,चिरगांव,झांसी
बाल रामायण– मुंशी अजमेरी, चिरगांव,झांसी
साकेत मैथलीशरण– गुप्त चिरगांव,झांसी
कुछ बोलो राम– श्रीनिवास शुक्ला,छतरपुर,मध्य प्रदेश
मर्यादा पुरुषोत्तम राम– रघुवर प्रसाद खरे,तालबेहट,ललितपुर उत्तर प्रदेश
प्रिया या प्रजा गोविंद दस ‘विनीत’, तालबेहट, ललितपुर,उत्तर प्रदेश
महानायक श्री राम , डॉ परमलाल गुप्त, सतना मध्य प्रदेश
जय राष्ट्र –डॉ राम नारायण शर्मा,बुंदेली भाषा उपन्यास, झांसी
रघुवंशम–भैयालाल व्यास, छतरपुर
बुंदेलखंड की सांस्कृतिक जड़ें ॠग्वैदिक काल से ही फलती फूलती रहीं हैं। बुंदेलखंड की लोक संस्कृति भारत और विश्व के अनेक जनपदों की लोक संस्कृतियों से भी प्राचीन है । नर्मदा घाटी के भूस्तरों की खोजों से पता चलता है कि नर्मदा घाटी की सभ्यता सिंधु घाटी की सभ्यता से बहुत पहले की है।
बुंदेलखंड की धरती ऋषि मुनियों की तपस्थली रही है। रामकथा के प्रचार प्रसार में बुंदेलखंड का विशेष योगदान है यदि अवध की धरती पर राम ने जन्म धारण किया तो बुंदेलखंड की धरती पर वनवास काल के लगभग 12 वर्ष बिताए। वाल्मीकि आश्रम लालापुर गांव में चित्रकूट के पास ही पहाड़ियों पर स्थित है। गोस्वामी तुलसीदास ने इसी धरती पर जन्म लिया और अपने जीवन का अधिक समय बिताया। भारद्वाज ऋषि की आज्ञा शिरोधार्य कर भगवान राम ने चित्रकूट को अपना प्रवास स्थान बनाया। यह वही दिव्य स्थान हैं जहाँ त्रेता युग की सबसे बड़ी धर्मसभा जुटी थी , जब भरत राम को वनवास से वापस अयोध्या चने को मनाने आये थे। चित्रकूट की महत्ता सर्वविदित है। बुंदेलखंड की धरती को लोग राम कथा की उत्पत्ति का केंद्रमानते हैं। इसका कारण यह है कि वाल्मीकि और तुलसीदास दोनों ने ही इस धरती पर तपस्या का राम कथा लिखने की शक्ति प्राप्त की।
श्री चित्रकूटं शरणं प्रपद्ये
सुवर्ण कूटं रजताभिकूटं, माणिकयकूटं मणिरत्नकूट्म।
अनके कूटं बहुवर्ण कूटं, श्री चित्रकूटं शरणं प्रपद्ये ।।
चित्रकूट मंदाकिनी नदी के किनारे बसा भारत के सबसे प्राचीन तीर्थस्थलों में से एक है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में 38.2 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला शांत और सुन्दर चित्रकूट, प्रकृति की अनुपम देन है। चारों ओर से विंध्याचल पर्वत श्रृंखलाओं और वनों से घिरे चित्रकूट को अनेक आश्चर्यो की पहाड़ी कहा जाता है। आदि अनादि तीर्थ है चित्रकूट। इस क्षेत्र के विभिन्न स्थानों और स्थलों की समृद्ध और विविध सांस्कृतिक, धार्मिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक विरासत का प्रतीक है। प्रत्येक अमावस्या को यहाँ विभिन्न क्षेत्रों से लाखों श्रृद्धालु एकत्र होते हैं। सोमवती अमावस्या, दीपावली, शरद-पूर्णिमा, मकर-संक्रांति और राम नवमी यहाँ के विशेष समारोहों वाले अवसर हैं।
ऋषि भारद्वाज की सलाह पर चित्रकूट आये श्री राम
प्राचीन काल से ही चित्रकूट का एक विशिष्ट नाम और पहचान है।इस स्थान का पहला ज्ञात उल्लेख ‘ वाल्मीकि रामायण ‘ में है, जो सबसे पहला महाकाव्य माना जाता है। महर्षि वाल्मीकि चित्रकूट को एक महान पवित्र स्थान के रूप में चित्रित करते हैं, जो महान ऋषियों द्वारा बसाया गया है। ऋषि भारद्वाज और वाल्मीकि दोनों इस सिद्ध तीर्थ क्षेत्र के बारे में प्रशंसा करते हुए श्रीराम को अपने वनवास की अवधि में इस स्थान को अपना निवास बनाने के लिए सलाह देते हैं, क्योंकि यह स्थान सभी इच्छाओं पूर्ण करने और मानसिक शांति देने वाला है । ‘ रामोपाख्यान ’ और महाभारत के विभिन्न स्थानों पर तीर्थों के विवरण में चित्रकूट एक को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है। यह ‘अध्यात्म रामायण’ और ‘बृहत् रामायण’ चित्रकूट की आध्यात्मिक और प्राकृतिक सुंदरता को प्रमाणित करते हैं। लेखकों के अनुसार बाद में चित्रकूट और इसके प्रमुख स्थानों का वर्णन सोलह कंटो वर्णित है। राम से संबंधित पूरे भारतीय साहित्य में इस स्थान को एक अद्वितीय गौरव प्रदान किया गया है। महर्षि भरद्वाज ने चित्रकूट का महत्व बताते हुए उन्हें चित्रकूट में ही निवास करने का सुझाव दिया। महर्षि भरद्वाज के बताने के अनुसार भगवान् श्रीराम ने अपने वनवास काल के 14 वर्ष वर्षों में से 12 वर्ष 01 माह 25 दिन चित्रकूट में ही बिताये।
तुलसी दास को श्री राम के दर्शन
संस्कृत और हिंदी कवियों ने चित्रकूट का बहुविधि वर्णन किया है। महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य ‘रघुवंश’ में इस स्थान का सुंदर चित्रण किया है। वह यहाँ के आकर्षण से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने मेघदूत में अपने यक्ष के निर्वासन का स्थान चित्रकूट पर्वत यानी रामगिरि को बनाया। हिंदी के संत-कवि तुलसीदास जी ने अपनी सभी प्रमुख कृतियों – रामचरित मानस, कवितावली, दोहावली और विनय पत्रिका में इस स्थान का अत्यंत आदरपूर्वक उल्लेख किया है। अंतिम ग्रन्थ में कई छंद हैं, जो तुलसीदास और चित्रकूट के बीच एक गहन व्यक्तिगत संबंध प्रदर्शित करते हैं। अपने जीवन का काफी हिस्सा उन्होंने यहाँ भगवन राम की पूजा और उनके दर्शन की लालसा में व्यतीत किया। यहाँ उनकी उपलब्धियों का एक उल्लेखनीय पल माना जाता है जब हनुमान जी के माध्यम से उन्हें अपने आराध्य श्री राम के दर्शन प्राप्त हुए। उनके मित्र, प्रसिद्ध हिंदी कवि रहीम यानी अब्दुर रहीम खान ए खाना जो सैनिक, राजनीतिज्ञ, संत, विद्वान, कवि, और अकबर के नव-रत्नों में से एक थे ने यहां कुछ समय बिताया था।
चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेस।
जापर विपदा पड़त है, सो आवत यहि देस॥
प्रणामी संप्रदाय के बीटक साहित्य के अनुसार, संत कवि महामति प्रणनाथ ने यहां अपनी दो पुस्तकों- छोटा कयामतनामा नामा और बड़ा कयामतनामा को लिखा था। वह वास्तविक स्थान, जहाँ प्राणनाथ रहे और जहाँ उन्होंने कुरान की व्याख्या और श्रीमद्भागवत महापुराण से इसकी समानताओं से सम्बंधित कार्य किये।
इसी पुण्य तीर्थ पर हनुमान जी की कृपा से तुलसीदास को रामघाट में अपने आराध्य प्रभु श्री राम के दर्शन हुए हैं-
चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़ ।
तुलसी दास चन्दन घिसें तिलक देत रघुवीर ।।
तीर्थों का तीर्थ है चित्रकूट
चित्रकूट सभी तीर्थों का तीर्थ है। हिंदू आस्था के अनुसार, प्रयागराज को सभी तीर्थों का राजा माना गया है; किन्तु चित्रकूट को उससे भी ऊंचा स्थान प्रदान किया गया है। किवदंती है की जब अन्य तीर्थों की तरह प्रयागराज चित्रकूट नहीं पहुंचे तब प्रयागराज को चित्रकूट की उच्चतम पदवी के बारे में बताया गया तथा प्रयागराज से अपेक्षा की गयी की वह चित्रकूट जाएँ, इसके विपरीत की चित्रकूट यहाँ आयें। ऐसी भी मान्यता है कि प्रयागराज प्रत्येक वर्ष पयस्वनी में स्नान करके अपने पापों को धोने के लिए आते हैं। यह भी कहा जाता है कि जब प्रभु राम ने अपने पिता का श्राद्ध किया तो सभी देवी-देवता शुद्धि भोज में भाग लेने चित्रकूट आए। वे इस स्थान की सुंदरता से मोहित हो गए थे। भगवान राम की उपस्थिति में इसमें एक आध्यात्मिक आयाम जुड़ गया। इसलिए वे वापस प्रस्थान करने के लिए तैयार नहीं थे। कुलगुरु वशिष्ठ, भगवान राम की इच्छा के अनुसार रहने और रहने की उनकी इच्छा को समझते हुए विसर्जन यानी प्रस्थान मंत्र को बोलना भूल गए। इस प्रकार, सभी देवी-देवताओं ने इस जगह को अपना स्थायी आवास बना लिया और वहां हमेशा उपस्थित रहते हैं।
भारतीय साहित्य और पवित्र ग्रन्थों में प्रख्यात, वनवास काल में साढ़े ग्यारह वर्षों तक भगवान राम, माता सीता तथा अनुज लक्ष्मण की निवास स्थली रहा चित्रकूट, मानव हृदय को शुद्ध करने और प्रकृति के आकर्षण से पर्यटकों को आकर्षित करने में सक्षम है। चित्रकूट एक प्राकृतिक स्थान है जो प्राकृतिक दृश्यों के साथ साथ अपने आध्यात्मिक महत्त्व के लिए प्रसिद्ध है। पर्यटक यहाँ के खूबसूरत झरने, चंचल युवा हिरण और नाचते मोर को देखकर रोमांचित होता है, तो एक तीर्थयात्री पयस्वनी-मन्दाकिनी में स्नान कर और कामदगिरी की परिक्रमा कर अभिभूत होता है।
प्राचीन काल से चित्रकूट क्षेत्र ब्रह्मांडीय चेतना के लिए प्रेरणा का एक जीवंत केंद्र रहा है। हजारों भिक्षुओं, साधुओं और संतों ने यहाँ उच्च आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त की है और अपनी तपस्या, साधना, योग, तपस्या और विभिन्न कठिन आध्यात्मिक प्रयासों के माध्यम से विश्व पर लाभदायक प्रभाव डाला है। प्रकृति ने इस क्षेत्र को बहुत उदारतापूर्वक अपने सभी उपहार प्रदान किये हैं, जो इसे दुनिया भर से तीर्थयात्रियों और पर्यटकों को आकर्षित करने में सक्षम बनाता है। अत्रि , अनुसूया, दत्तात्रेय, महर्षि मार्कंडेय, सरभंग, सुतीक्ष्ण और विभिन्न अन्य ऋषि, संत, भक्त और विचारक सभी ने इस क्षेत्र में अपनी समय व्यतीत किया है। आज भी यहाँ की विभिन्न गुफाओं और अन्य क्षेत्रों में तमान विभूतियाँ साधना रत हैं। इस क्षेत्र की एक आध्यात्मिक सुवास है, जो पूरे वातावरण में व्याप्त है और यहाँ के प्रत्येक दिन को आध्यात्मिक रूप से जीवंत बनाती है।
आज भी यहां आने वाला पर्यटक जब यहां की प्राकृतिक छटा , गुफाओं, आश्रमों और मंदिरों के वैभव को देखता है तो पवित्र और आध्यात्मिक साधना में लगे ऋषियों के साथ वह अनजाने में ही खुद को जोड़ लेता है। एक अलग दुनिया के आनंद को प्राप्त करता है। देश विदेश के सभी हिस्सों से हजारों तीर्थयात्री और पर्यटक हर दिन चित्रकूट दर्शन को आते हैं।
तुलसीदास की जन्मभूमि
मंदाकिनी नदी के किनार बने अनेक घाट विशेष कर रामघाट और कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा के लिए पूरे साल श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता है। अमावस्या के दिन यहाँ विशेष महत्व माना जाता है माना जाता है कि भगवान राम ने सीता और लक्ष्मण के साथ अपने वनवास के चौदह वर्षो में साढ़े ग्यारह वर्ष चित्रकूट में ही बिताए थे। इसी पुण्य तीर्थ पर ऋषि अत्रि और सती अनुसूया ने ध्यान लगाया था। ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने चित्रकूट में ही सती अनसूया के आश्रम मैं बाल स्वरूप धारण किया था । चित्रकूट से 35 की दूरी पर किलोमीटर पर स्थित यमुना नदी के तट पर राजापुर गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म स्थान है । यहां रामचरितमानस की मूल प्रति रखी हुई है। चित्रकूट से प्रयागराज जाने वाले सड़क मार्ग पर वाल्मीक आश्रम 18 किलोमीटर दूर है , पर्टयन की दृष्टि से यह महत्त्व पूर्ण स्थल है।
रामायण और रामचरितमानस
महर्षि वाल्मीक ने ‘रामायण’ की रचना की। गोस्वामी तुलसीदास ने भी श्री राम के जीवन पर केन्द्रित भक्ति भावपूर्ण सुप्रसिद्ध महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ की रचना की है। इन दोनों के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं में भी रामायण की रचनाएँ हुई हैं, जो काफी प्रसिद्ध भी हैं। भारत में श्री राम अत्यन्त पूजनीय चरित्र हैं और आदर्श पुरुष हैं। विश्व के कई देशों में भी श्रीराम आदर्श के रूप में पूजे जाते हैं, जैसे थाईलैण्ड, इण्डोनेशिया आदि ।
इन्हें पुरुषोत्तम शब्द से भी अलंकृत किया जाता है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, अयोध्या के राजा दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बड़े पुत्र थे। राम की पत्नी का नाम सीता था। इनके तीन भाई थे- लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। हनुमान राम के सबसे बड़े भक्त माने जाते हैं। राम ने लंका के राजा रावण का वध किया। श्री राम की प्रतिष्ठा मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में है। श्री राम ने मर्यादा के पालन के लिए राज्य, मित्र, माता-पिता, यहाँ तक कि पत्नी का भी साथ छोड़ा। इनका परिवार, आदर्श भारतीय परिवार का प्रतिनिधित्व करता है। राम रघुकुल में जन्मे थे, जिसकी परम्परा
रघुकुल रीति सदा चलि आई प्राण जाई पर बचन न जाई की थी। राम के पिता दशरथ ने उनकी सौतेली माता कैकेयी को उनकी किन्हीं दो इच्छाओं को पूरा करने का वचन दिया था। कैकेयी ने दासी मन्थरा के बहकावे में आकर इन वरों के रूप में राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राज सिंहासन और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांगा। पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने खुशी से चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। पत्नी सीता ने आदर्श पत्नी का उदाहरण देते हुए पति के साथ वनवास जाना उचित समझा। भाई लक्ष्मण ने भी राम के साथ चौदह वर्ष वन में बिताए। भरत ने न्याय के लिए माता का आदेश ठुकराया और बड़े भाई राम के पास वन जाकर उनकी चरणपादुका ले आए। फिर इसे ही राज गद्दी पर रख कर राजकाज किया।
वनवास के समय ही श्री राम की पत्नी सीता को रावण हरण कर ले गया। राम को हनुमान जैसा मित्र और भक्त मिला जिसने राम के सारे कार्य पूरे कराये। राम ने हनुमान, सुग्रीव आदि वानर जाति के महापुरुषों की सहायता से सीता को ढूंंढा। समुद्र में पुल बना कर लंका पहुँचे तथा रावण के साथ युद्ध किया। उसे मार कर सीता जी को वापस ले कर आये। राम के अयोध्या लौटने पर भरत ने राज्य उनको ही सौंप दिया। राम न्यायप्रिय थे। उन्होंने बहुत अच्छा शासन किया, इसलिए लोग आज भी अच्छे शासन को रामराज्य की उपमा देते हैं। इनके दो पुत्रों कुश व लव ने इनके राज्यों को संभाला।
रामलीला का आधार तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ आज रामलीला का जो स्वरूप विकसित हुआ है उसके जनक गोस्वामी तुलसीदास ही माने जाते हैं, और यह भी सच है कि इन सभी रामलीलाओं में रामचरितमानस का गायन,उसके संवाद और प्रसंगों की एक तरह से प्रमुखता रहती है। रामलीला में दर्शकों का जितना संपूर्ण सहयोग होता है उतना और किसी भी नाट्यरूप में मिल पाना कठिन ही है। चित्रकूट की पुरातन रामलीला हो या ओरछा की …ये ही क्यों , चरखारी,महोबा,छतरपुर,झांसी,दतिया के प्रामाणिक विवरण के लिए अलग अलग ग्रन्थ चाहिए।
तुलसीदासजी ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘रामचरितमानस’ के आधार पर रामकथा का मंचन प्रारम्भ कराके रामलीला को एक नया स्वरूप प्रदान किया था। रामलीला का यही स्वरूप आज भारत के कोने−कोने में लोकप्रियता के चरम पर है। तुलसीदासजी के पहले से हो रही रामलीलाएं भी अब तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ के ही आधार पर मंचित होती हैं।
ओरछा के राजा हैं श्री राम
बेतवा नदी के किनारे पर बसा ओरछा मध्य काल के समय में परिहार राजाओ की राजधानी हुआ करता था। परिहार राजाओ के बाद यहाँ पर चंदेल राजाओ ने भी शासन किया है और चन्देल शासको के बाद यहाँ पर बुन्देल राजाओ ने राज किया है जो आपको वर्तमान में ओरछा दिखाई देता है उसके निर्माण की शुरुआत राजा रूद्र प्रताप सिंह ने सन 1501 से करवाई थी। बहुत ही अज़ब गज़ब इतिहास है ओरछा का।
श्री राम राजा मन्दिर का इतिहास
श्री राम का महत्त्व आपको अयोध्या के बाद ओरछा में दिखाई देता है। यहाँ लोग भगवान राम को अपना राजा मानते है। यहाँ पर राम हर धर्म के राजा है। दूर-दूर से लोग इस स्थल पर राम राजा के दर्शन करने आते है। राम राजा मन्दिर के इतिहास पर गौर करते हैं ,जो शुरू होता है मधुकर शाह के कार्यकाल से। यहाँ के महाराजा कृष्ण भक्त थे और महारानी जो की ग्वालियर जिले से थी वो एक राम भक्त थी। महारानी का नाम कुंवर गणेश था |
एक दिन मधुकर शाह और कुंवर गणेश बातें कर रहे थे और बातों बातों में दोनों अपने अपने ईष्ट देव को लेकर झगडा करने लगे। महाराजा मधुकर शाह ने महारानी से बोल दिया कि यदि वो एक सच्ची राम भक्त है तो जाए अयोध्या और रामजी को यहाँ ओरछा ले आये
अब महारानी जी ने भी यह बात गाँठ बाँध ली और बोली की या तो अब मै अपने ईष्ट प्रभु राम को अयोध्या से ओरछा लाऊंगी या फिर अयोध्या में ही अपने प्राण त्याग दूंगी |
महारानी कुंवर गणेश आ गई अयोध्या और सरयू नदी के किनारे शुरू कर दी अपने प्रभु राम जी की पूजा अर्चना। समय बीतता गया। काफी दिन हो गए महारानी जी को श्रीराम ने दर्शन नहीं दिए। अब महारानी ने हताश होकर अपने प्राण त्यागने का निर्णय लिया और सरयू में छलांग लगा दी। तभी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम एक बालक के रूप में दर्शन देते हैं। किंवदंती है कि सरयू में जब महारानी से छलांग लगाईं थी तो जलधारा में ही भगवान राम महारानी की गोद में बैठ गए थे |
अब महारानी बालक रूप में गोद मैं बैठे श्रीराम से ओरछा चलने का निवेदन करती है श्रीराम मान भी जाते है, लेकिन तीन शर्तो के साथ। महारानी कुंवर गणेश भगवान राम से उनकी शर्ते पूछती है तब वे बताते हैं –
पहली शर्त – जहाँ हम जा रहे है वहां के सिर्फ हम ही राजा होंगे कोई दूसरा नहीं।
दूसरी शर्त – अयोध्या से ओरछा तक आपके साथ हम पैदल जायेंगे वो भी पुष्य नक्षत्र में।
तीसरी शर्त – यदि हम कहीं पर भी विराज गए तो वहां से उठेंगे नहीं।
एक किंवदंती यह भी है कि जब राम बन चले गए थे, माता कौशल्या ने अपने हाथ से राम की एक मूर्ति बनाया था और राम के वन से लौटने तक 14 सालों तक उस मूर्ति की पूजा किया था।जब राम वापस लौट आये, कौशल्या ने वो मूर्ति यहाँ विसर्जित कर दिया था। रानी कुंवर की तपस्या से प्रसन्न होकर राम ने उनको दर्शन दिया और अपनी वही मूर्ति जो मां कौशल्या ने बनाया था, उनको भेंट किया महारानी कुंवर गणेश ने श्रीराम की तीनों शर्तें मान ली। फिर श्रीराम की मूर्ति ले कर महारानी पैदल चल दीं और 8 महीने 28 दिन में वो ओरछा आ गई। महाराजा मधुकर शाह को सपना आया
यह भी कहा जाता है महारनी के ओरछा पहुँचने से पहले महाराजा मधुकर शाह को सपना आया था कि महारानी भगवान राम को लेकर आ रही है तो मधुकर शाह ने भगवान राम के लिये मन्दिर बनवाना शुरू कर दिया जिसे चतुर्भुज मन्दिर कहते है |लेकिन यह चतुर्भुज मन्दिर पूर्ण रूप बन पाता उससे पहले ही महारानी कुंवर गणेश जी श्रीराम को लेकर ओरछा आ गई और श्रीराम को अपने महल की रसोई घर में थोड़े समय के लिए स्थापित कर दिया। फिर जब चतुर्भुज मंदिर बन गया तब उस मूर्ति को रसोई घर से उठाकर इस चतुर्भुज मंदिर में स्थापित किया जाना था लेकिन श्रीराम की वह मूर्ति वहां से उठी ही नहीं इसी को सभी ने भगवान राम का चमत्कार माना और उसी महल को मंदिर बना दिया। इसी महल नुमा मंदिर में आज भी श्री राम राजा दर्शन देते है। इस मंदिर को ही श्री राम राजा मन्दिर कहा जाता है |तो इसीलिये महल में बैठे राजा राम ओरछा के राजा है ओरछा में सिर्फ राजा राम की ही सरकार चलती है और यहाँ पर पुलिस द्वारा बन्दूक से राजा राम को सलामी दी जाती है ओरछा का इतिहास बगैर श्री राम राजा सरकार के इतिहास के अधूरा है। डॉ राममनोहर लोहिया का रामायण मेला
रामायण मेला के आयोजन की परिकल्पना डॉ राममनोहर लोहिया ने सन् 1961 में की थी। तमाम प्रयासों के बाद 1973 में पहली बार उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी सत्प्रयासों से चित्रकूट में रामायण मेला आयोजित हुआ । इस आयोजन में नगरपालिका चित्रकूटधाम, कर्वी की बड़ी भूमिका थी । नगरपालिका के अध्यक्ष गोपाल कृष्ण करवरिया और रामायण मेला के संयोजक आचार्य बाबूलाल गर्ग की बड़ी सक्रिय भूमिका थी । 1973 में रामचरित मानस की रचना के 400 वर्ष पूरे होने पर ’मानस चतुर्थशती के अवसर पर इस मेले को साकार रूप दिया गया था। इस आयोजन को अपने अस्तित्व में आने मे 12 साल का समय लगा ।1973 से शुरू हुए इस मेले को अगले साल 2023 में पूरे 50 साल हो जाएंगे ।
सुबह के सत्र में साधु संतों के भक्तिभाव भरे प्रवचन होते , दोपहर बाद के सत्र में वैचारिक व्याख्यान , रात्रि में सांस्कृतिक कार्यक्रम शास्त्रीय नृत्य आदि । आयोजन स्थल पर रामकथा पर आधारित चित्रों की प्रदर्शनी भी लगती । उस समय की शायद ही कोई प्रसिद्ध नृत्यांगना हो इस आयोजन में न आई हों …सोनल मान सिंह , स्वप्न सुंदरी , शोभना नारायण, कविता श्रीधरानी कौन नही आया । शर्मा बंधुओं का गायन एक अलग तरह का वातावरण पैदा करता है । उज्जैन निवासी गोपाल शर्मा, सुखदेव शर्मा, कौशलेन्द्र शर्मा और राघवेन्द्र शर्मा ये चारों भाई शर्मा बन्धु के नाम से जाने जाते हैं।भजन गायकी में एक नया ट्रेंड स्थापित करने का श्रेय इन्हीं भाईयों को जाता है। चारों मिलकर जब कोई भजन गाते हैं तो भक्ति भाव का बेहद अदभुत वातावरण बन जाता है। शर्मा बंधुओं की निर्झर कल-कल बहती अमृत वाणी सुनना अविस्मर्णीय अनुभव है ।भारत की एकता का लक्ष्य
आनन्द, प्रेम और शान्ति के आह्वान के मुख्य प्रयोजन के साथ डॉ राममनोहर लोहिया ने रामायण मेला आयोजित करने की संकल्पना की थी। उन्हें लगता था कि आयोजन से भारत की एकता जैसे लक्ष्य भी प्राप्त किए जाएँगे। लोहिया मानते थे कि कम्बन की तमिल रामायण, एकनाथ की मराठी रामायण, कृत्तिबास की बंगला रामायण और ऐसी ही दूसरी रामायणों ने अपनी-अपनी भाषा को जन्म और संस्कार दिया। उनका विचार था कि रामायण मेला में तुलसी की रामायण को केन्द्रित करके इन सभी रामायणों पर विचार किया जाएगा और बानगी के तौर पर उसका पाठ भी होगा।
लोहिया जी का मत था कि तुलसी एक रक्षक कवि थे। …डॉ लोहिया जवाहर लाल नेहरू को भी रामायण मेला में लाना चाहते थे । लेकिन साधारण नागरिक के रूप में , प्रधान मंत्री की हैसियत से नहीं ।…तब चित्रकूट की कोलकाता वाली धर्मशाला में रामायण मेले का कार्यालय स्थापित हुआ था ।
आयोजन की परिकल्पना इसी चित्रकूट से प्रेरित होकर की गई । डॉ लोहिया ने कहा कि चित्रकूट के रामायण मेले की बात सोचते समय मेरे दिमाग में कई बातें आई, यह क्षेत्र निर्धन है। हर मामले में पिछड़ा है यहां की सांस्कृतिक चेतना भी अर्ध विकसित है। मैंने सोचा रामायण मेले से जहां देश में एकता की लहर दौड़ेगी एशियाई क्षेत्रों से हमारे संबंध मधुर होंगे और उन देशों की जनता के बीच भ्रातत्व की भावना जगेगी , वही चित्रकूट की समस्याएं भी सुधरें सुधरेगी सरकार का ध्यान इस ओर आकृष्ट होगा।
सीता राम राज
गांधी जी ने रामराज्य की परिकल्पना की थी मैं रामायण मेला से सीता राम राज की आवाज बुलंद करने की सोचता हूं । चित्रकूट से बढ़कर और कोई स्थान इसके लिए उपयुक्त नहीं होगा । रामायण मेला परंपरागत मेलों से अलग होगा जिसका उद्देश्य होगा आनंद , दृष्टिबोध , रस संचार तथा हिंदुस्तानी को बढ़ावा । रामायण उत्तर और दक्षिण की एकता का ग्रंथ है और राम हिंदुस्तान के उत्तर दक्षिण एकता के प्रमुख देवता हैं । राम के जैसा मर्यादित जीवन कहीं नहीं , ना इतिहास में ना कल्पना में । रामायण मेला भारत की संस्कृति का सबसे बड़ा मेला होगा।
आज 50 वर्षों से आयोजित यह मेला रामकथा के प्रचार प्रसार के साथ बुंदेलखंड का गौरव बढ़ा रहा है।