April 25, 2025

स्मृतियों का अपार प्रवाह।… जब तक चेतना का स्पंदन है तब तक इस लीला भूमि में अपने होने का अहसास जीवंत है । जब तक हम अपने होने के अहसास से रोमांचित हैं तब तक ही यह सृष्टि हमारी संगिनी है । जीवन है, राग है, लय है, मोह है, माया है, स्मृतियों का महारास है।

स्मृतियों से मुक्ति ही मोक्ष है। जो फिलहाल अपने को नहीं चाहिए –

अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहउँ निरबान।

जनम-जनम रति राम पद, यह बरदानु न आन॥

प्रकृति की श्रेष्ठ रचना प्रकृति ही है। प्रकृति के द्वारा ही समूचे ब्रह्माण्ड की रचना हुई । ‘प्र’ का अर्थ है ‘प्रकृष्ट’ और ‘कृति’ से सृष्टि के अर्थ का बोध होता है । प्रकृति का मूल अर्थ यह ब्रह्माण्ड है । इस ब्रह्माण्ड के एक छोटे से, अंश के रूप में, इस पृथ्वी का अस्तित्व है, जिस पृथ्वी पर मनुष्य का जन्म हुआ है । इस पृथ्वी के बगैर मानव -जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है. प्रकृति का दूसरा रूप है, नारी । नारी के बगैर भी जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती, क्योंकि कोई जीव जन्म से, पहले 9 महीने माँ की कोख में पलता है और जीव जब जन्म लेता है, तो अपना आश्रय मां के आंचल में ही पाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य का जीवन, प्रकृति नारी अस्तित्व के बगैर संभव नहीं है ।

बगैर नारी के सहयोग के पुरुष पूर्ण नहीं हो सकता । हमें अपने बचपन में झांक कर देखना होगा कि अपने परिवेश और समाज से क्या मिला, और आने वाली पीढ़ी को वह क्या देने जा रहा है। नारी-मन का सम्पूर्ण सम्मान और सहयोग पाने के लिए पुरुषों को पुरुषार्थ प्राप्त करने की आवश्यकता है । पुरुषार्थ दंभ और अहंकार से परे  वह वृत्ति है, जो पुरुषोचित व्यक्तित्व प्रदान करता है। प्रकृति, व्यापक अर्थ में, प्राकृतिक, भौतिक या पदार्थिक जगत या ब्रह्माण्ड हैं।

प्रकृति का सन्दर्भ भौतिक जगत से हो सकता है और सामन्यतः जीवन से भी हो सकता हैं । प्रकृति का अध्ययन, विज्ञान के अध्ययन का बड़ा हिस्सा है। मानव प्रकृति का हिस्सा है, मानवीय क्रिया को प्रायः अन्य प्राकृतिक विषय  से अलग श्रेणी के रूप में समझा जाता है । मानव और पशु- पक्षी आदि सभी प्रकृति की ही तो देन है ।  मानव अपने विकास की ओर बढता जा रहा है ! पर वह प्रकृति की अनदेखी कर रहा है ।  हम प्रकृति से जितना दूर जाते रहेंगे, प्रकृति भी हमें अपने से उतना दूर करती रहेगी ।

सभी जीवधारियों का अंत होता है – ‘केहि जग काल न खाय‘ वनस्पति और जीव- जंतु सभी मृत्यु को प्राप्त होते हैं , उनका शरीर नष्ट हो जाता है। परंतु, यदि एक-कोशिक जीव बड़ा होकर अपने ही प्रकार के दो या अधिक जीवों में बँट जाता है, तो इस घटना को पहले जीव की मृत्यु कहेंगे क्या ? वैसे तो संतति भी माता-पिता के जीवन का विस्तार ही है, उनका जीवनांश एक नए शरीर में प्रवेश करता है ।

पुरूष निष्क्रिय है और प्रकृति चंचल; वह माया है और हाव-भाव बदलती रहती है। पर बिना पुरूष के यह संसार, यह चराचर सृष्टि नहीं हो सकती। उपमा दी गई कि पुरूष सूर्य है तो प्रकृति चंद्रमा, अर्थात उसी के तेज से प्रकाशवान ।

अगर भूलने की प्रवृत्ति नहीं होती, तो नई शुरुआत भी नहीं होती । परिवर्तन एक अपराजित सत्य है । देखते- देखते कितना कुछ बदल जाता है, इतना कि हम अपने आप को नहीं पहचान पाते। इस मृत्यु लोक मे जो भी सृजित होता,. वह विसर्जित होता है । यह सत्य जानने के बावजूद हम सब अपने आसपास एक ऐसी सृष्टि रचते हैं, जैसे यह सब अजर -अमर है । यह एक चेतन बुलबुले का अपना संसार होता है। जब यह सब जब झरने लगता है, तब बेचैनी होती है। स्मृतियों का महारास ऐसे समय महापाश बन जाता है – जन्म और मृत्यु दोनों असाध्य कष्टकारी है। इसी कष्ट से मुक्ति की बात की जाती है । परम सत्ता की शरण में जाने की बात की जाती हैं-

 जनमत मरत दुसह दुख होई…

हमारा जीवन हमारी स्मृतियों की ही दास्तान है । ये स्मृतियां ही हमें जीवंत बनाती  हैं । हमें हमारे होने का एहसास कराती हैं ।

मैं कौन हूं ?… इस सवाल का जवाब है कि आप एक शाश्वत आत्मा हैं । अनंत जन्मों से आत्मा अज्ञानता के आवरण में थी. लेकिन, मैं कौन हूं ? सवाल के जवाब में आप अक्सर अपने शरीर से जुड़े नाम, रिश्तों नातों के चश्मे से अपनी पहचान बनाने लगते हैं, किसी के पुत्र, पति, भाई या मित्र के रूप में अपने आप को पहचानने लगते हैं । ये ही अज्ञानता का आवरण है । ‘ मैं ‘ जिस ‘ मैं ‘ के अवरण में हूँ वही आसक्ति का सर्जक हैं, स्मृतियों का महारास । इसी महारास के चरम आवेग में टूटते हैं- स्मृतियों के सारे तिलिस्म, तब आगत निराकार होता है । यही निराकार शाश्वत है । यही शिव है ।

शिव ने दो धाराओं को प्रवाहित किया – तंत्र और योग । उन्होंने अपनी पत्नी पार्वती को तंत्र सिखाया । तंत्र बहुत अंतरंग विषय है, उसे बहुत करीबी लोगों के साथ ही साझा किया जा सकता है, लेकिन योग को विश्वस्तर पर सिखाया जा सकता है । अनंत शिव से विराट हिरण्यगर्भ का जन्म हुआ है, जो योग का प्रथम गुरु है, प्रथम वक्ता है । उसी शिव का आदि शक्ति के साथ संयोग सृष्टि तंत्र को जन्म देता है । चिति शक्ति को वश में करके इच्छाओं को पूर्ण करने की रहस्य विद्या ही तंत्र है।

तंत्र शक्ति को लक्ष्य करके किया जाता है और योग परम शिव को लक्ष्य करके प्राप्त किया जाता है । शक्ति को साधने वाले सिद्ध हो जायें, यह मात्र संभावना ही रहती है, किंतु शिव को खोजने वाले तंत्र सिद्धि को अवश्य प्राप्त करते हैं यह निश्चित है ।

सूर्य से पहले और सूर्य के बाद क्या है ? शाश्वत क्या है । अंधकार । वह क्या है, जिसे आप ईश्वर कहते हैं ? वह जिससे हर चीज पैदा होती है, उसे ही तो आप ईश्वर के रूप में जानते हैं । अस्तित्व में हर चीज का मूल रूप क्या है ? उसे ही तो आप ईश्वर कहते हैं। ईश्वर क्या है, अंधकार या प्रकाश ? शून्यता का अर्थ है अंधकार । हर चीज शून्य से पैदा होती है। विज्ञान ने आपके लिए यह साबित कर दिया है और आपके धर्म हमेशा से यही कहते आ रहे हैं – ईश्वर सर्वव्यापी है । शिव अंधकार की तरह श्यामल  हैं । क्या आप जानते हैं कि शिव शाश्वत क्यों हैं ? क्योंकि वे अंधकार हैं । वे प्रकाश नहीं हैं । प्रकाश बस एक क्षणिक घटना है । अंधकार सर्वव्यापी है । लेकिन आप अंधकार को नकारात्मक समझते हैं । यह सिर्फ आपके भीतर बैठे हुए भय के कारण है ।

इस संसार की उत्पत्ति आनंदमय पुरुष से हुई है । उस पुरुष का अस्तित्व आनंद पर टिका है । आनंद में एक आकर्षण है, एक सम्मोहन है । जाने-अनजाने में हर कोई इसी रास्ते पर जा रहा है । ध्यान उस आनंद की खोज का ही नाम है । जो है ये तो कहीं न कहीं से आया है ! सूर्य, चांद, तारे, घर, परिवार, मित्र, पुत्र, पत्नी, रिश्ते नातों का यह संसार आप के इर्द गिर्द आया ही तो है । आया है, तो जाएगा भी ।… अंधकार यानी निराकार, यही तो शाश्वत है !!…

सूर्य, चांद, तारे, ग्रह, नक्षत

सब ध्वस्त हो चुके हों

… अकेले बचे हों केवल आप !

तब आप क्या करेंगे ?

यानी अब इसी शाश्वत निराकार में होना है एकाकार ।… यही बेला है महारास की । जहां ‘वो ‘एक है और हम आप अनंत जीव उसमे लीन होने को आतुर । इसी आतुरता का चरम है पूर्णत्व ।