

स्मृतियों की परछाइयां !… समय की मुठ्ठी में जीवंत और महसूस होता अतीत कभी-कभी वर्तमान से भी ज्यादा मुखर हो उठता है … सब अभी-अभी घट रहा जैसा ! तारीखों के फासले बेमानी है … स्मृतियों की किताब के पन्ने … उन पर गुजरते-संवरते लोग … सब आप के मुखातिब करता हूँ !
ये सब जो मुझे सँवार रहे हैं … निखार रहे हैं … सब को हाजिर- नाज़िर मान कर आप के रू-ब-रू होता हूँ … यानी ‘ मैं जो हूँ ‘ !
ये सारी स्मृतियां एक किताब में दर्ज हो रहीं हैं । एक किताब नाकाफ़ी है, इन स्मृतियों को संजोने के लिए, पर कागज़ में उतारने का बहाना तो है । इस प्रक्रिया को मैंने जटिल होने से बचाया है ।
यह किसी लेखक की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं । यह एक दृष्टा की साक्षी भाव से व्यक्तप्रामाणिक प्रस्तुतियां हैं । बेशक इनमें लेखकीय अनुशासन न हो, पर यह स्मृतियों के प्रामाणिक दस्तावेज हैं ।… ये विद्वता से परे सहज रूप से व्यक्त भाव हैं ।… ये किसी रचनाकार के अनुशासित लेखन कर्म यानी इत्मीनान से टेबल कुर्सी पर वैठ कर लिखी गई प्रस्तुतियां नहीं, बल्कि चलते चलाते, खड़े बैठे, पार्क, मेट्रो, रेस्तरां में सेल फोन पर दर्ज होती गईं अभिव्यक्तियाँ हैं ।
इस किताब के लेखन के दौरान हमारा कंप्यूटर हमसे दूर हो गया, वजह छोटे पौत्र रुद्र की झपटमारी से कंप्यूटर को बचाना पड़ा । अभी जब बड़े पौत्र शौर्य ने किताब का कवर देखा, तो कहा कि इसमें तो आप के आसपास कोई नहीं है, जब कि टाइटल ‘ आसपास के लोग ‘ है । इसमें अपने साथ मेरा और रुद्र का भी फोटो लगाओ या फिर टाइटल ही दूरदराज के लोग कर दो ।
मैंने गंगा तट ऋषिकेश के परमार्थ आश्रम के प्रवास में, सुबह दोपहर शाम और चांदनी रातों में गंगा को निहारते, स्पर्श करते और चलते फिरते, गंगा से बात करते हुए , पांच गंगा गीत ‘ गंगा गीतम ‘ लिखें हैं, पहला गीत –
देवि गंगे !… धरा पर स्वागतम !
स्वागतम… सुस्वागतम…
नमामि गंगे !… धरा पर स्वागतम !!
तुम धरा का प्राण-जीवन
तुम धरा की आरती !
तुम प्रकृति की पूज्य तनया
तुम पर निछावर भारती !!
देवि गंगे !… धरा पर आगमन हो शुभम !
स्वागतम… सुस्वागतम…
देवि गंगे !… धरा पर स्वागतम !
तुम धरा की गीत हो
काल तुमको गा रहा है!
सुर, ताल, लय, संगीत हो तुम
महाकाल तुमको गा रहा है !!
देवि गंगे !… तुम हो धरा का मन-मरम !
स्वागतम… सुस्वागतम…
देवि गंगे !… धरा पर स्वागतम !!
तुम धरा पर सत्य हो
सत्य का आधार हो !
सत्य की हो तुम गवाही
तुम सत्य का साकार हो !!
देवि गंगे !… धरा पर तुम ही सत्यम !
स्वागतम… सुस्वागतम…
देवि गंगे !… धरा पर स्वागतम !!
शिव सत्व हो तुम, कल्याण तुम हो
प्रेरणा हो, धरा के प्राण तुम हो !
सभ्यता के हर सर्ग की तुम ही रचयिता
मानवों के अभिशाप का त्राण तुम हो !!
देवि गंगे !… धरा पर तुम ही हो शिवम् !!
स्वागतम… सुस्वागतम…
देवि गंगे !… धरा पर स्वागतम !!
सहज सुन्दर, देवि छवि, तुम पतित पावन
धरा है तुम्हारी अल्पना-संकल्पना !
देव, सुर, नर क्या कर सकेंगे
तुम्हारी छवि से मुखर, और कोई कल्पना !!
देवि गंगे !… तुम धरा पर सुन्दरम… अति सुन्दरम !!
स्वागतम… सुस्वागतम…
देवि गंगे !… धरा पर स्वागतम !!
शिव, सत्य, सुन्दर जो भी धरा पर
सब आपका विस्तार है !
खेत, वन, उपवन और मानवों पर
आपका उपकार है !!
देवि गंगे !… तुम ही सत्यम, शिवम्, सुन्दरम !
नमामि गंगे !… तुम ही सत्यम, शिवम्, सुन्दरम !!
स्वागतम… सुस्वागतम…
देवि गंगे !… धरा पर स्वागतम !!
ये गीत कॉपीराइट के झमेले से पूर्णतः मुक्त हैं ।… मौलिक ! ये मौलिक क्या है, वह कोई एक शब्द जो आप अपनी अभिव्यक्ति के लिए प्रयोग कर रहे हैं, वह आपका सृजन है क्या । इस सृष्टि में जो कुछ भी है, आप उसके उपभोक्ता हैं, सर्जक नहीं । ये शरीर, रूप, रंग, मकान, दुकान के आप मालिक नहीं, केवल उपभोक्ता ।
हर साल शरीर की बढ़ती उम्र का जश्न मनाते हुए आपकी अमृत की चाह और बढ़ती जाती है ।… ‘ अमृत तो मृगतृष्णा हैं ‘।
आप की नज़र यह मेरी पहली किताब है। कितनी सार्थक, कितनी ग्राह्य, कितनी उपयोगी है, यह आप सब पाठकों को तय करना है । इसमें आप से भी जुड़े प्रसंग हैं। यथासंभव प्रयास किया गया है की प्रस्तुति मर्यादित हो, सुरुचिपूर्ण हो।… इसमें वे लोग ही शामिल हुए हैं, जो कभी- न- कभी मेरे साथ संग गुज़रे हैं। उल्ल्खित व्यक्तियों का उतना ही जिक्र है, जितने प्रसंग तक उनका सन्दर्भ है।
मैं उन सभी का आभार व्यक्त करता हूं, जो इस किताब के लिखने में प्रेरक तत्व रहे हैं । किताब का प्रकाशन करने वाली संस्था का आभार।
– टिल्लन रिछारिया
91 8826367761